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::::::::::: क्या है शिवलिंग::::::::::::
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समस्त संसार में शिवलिंग पाए जाते हैं ,विभिन्न धर्मों तक में इनकी किसी न किसी रूप में प्रतीकाकृति मिलती हैं |हिन्दू धर्म में यह परम पवित्र शिव के प्रतीक माने जाते हैं और इनकी पूजा की जाती है |यह शिवलिंग है क्या ,कभी इस पर सामान्यतया विचार सामान्य लोग नहीं करते जा इसके बारे में बहुत नहीं जानते |इसलिए जो जैसी परिभाषा इसकी गढ़ कर सुना देता है सामान्य रूप से मान लिया जाता है और कल्पना कर ली जाती है |कुछ महाबुद्धिमान प्राणियों ने परम पवित्र शिवलिंग कोजननांग समझ कर पता नही क्या-क्या और कपोलकल्पित अवधारणाएं फैला रखी हैं परन्तु...वास्तव में.शिवलिंग. वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारेअनन्त ब्रह्माण्ड ( क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है ) का प्रतिनिधित्व करता है |इसका अक्ष /धुरी (axis) ही लिंगहै।
दरअसल.इसमें ये गलतफहमी.. भाषा के रूपांतरणऔर, मलेच्छों द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट करदिए जाने तथा, अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्नहुआ हो सकता है. |जैसा कि.... हम सभी जानते है कि.एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में. अलग-अलग अर्थनिकलते हैं....! उदाहरण के लिए.- यदि हम हिंदी के एकशब्द ""सूत्र''' को ही ले लें तो सूत्र मतलब. डोरी/धागा,.गणितीय सूत्र ,.कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकताहै जैसे कि. नारदीय सूत्र ,.ब्रह्म सूत्र इत्यादि | उसी प्रकार""अर्थ"" शब्द का भावार्थ: सम्पति भी हो सकता है और मतलब (मीनिंग) भी |
ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंगशब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार याप्रतीक है।
ध्यान देने योग्य बात है कि""लिंग"" एक संस्कृत का शब्दहै जिसके निम्न अर्थ है :
@ त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ०५
अर्थात..... रूप, रस, गंध और स्पर्श ........ये लक्षणआकाश में नही है ..... किन्तु शब्द ही आकाश का गुणहै ।
@ निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकशस्य लिंगम् -वै०। अ ०२ । आ ० १ । सू ० २ ०
अर्थात..... जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है....वह आकाश का लिंग है ....... अर्थात ये आकाश केगुण है ।
@ अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० ६
अर्थात..... जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम)विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे कालकहते है, और ये .... काल के लिंग है ।
@ इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ० २ । सू ० १ ०
अर्थात....... जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व्नीचे का व्यवहार होता है ....उसी को दिशा कहतेहै....... मतलब कि....ये सभी दिशा के लिंग है ।
@ इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिंगमिति -न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात..... जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न)पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वोजीवात्मा है...... और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थातकर्म व् गुण है ।
इसीलिए......... शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड औरनिराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन..........इसे लिंग कहा गया है...।
स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि....... आकाश स्वयं लिंगहै...... एवं , धरती उसका पीठ या आधार है .....और ,ब्रह्माण्ड का हर चीज ....... अनन्त शून्य से पैदाहोकर..... अंततः.... उसी में लय होने के कारण इसेलिंग कहा है .|यही कारण है कि इसे कई अन्य नामो सेभी संबोधित किया गया है जैसे कि प्रकाश स्तंभ/लिंग,अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग (cosmic pillar/lingam) इत्यादि |
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि. इस ब्रह्माण्ड में दोही चीजे है : ऊर्जा और प्रदार्थ | इसमें से हमारा शरीरप्रदार्थ से निर्मित है जबकि आत्मा एक ऊर्जा है |ठीकइसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बनकर शिवलिंग कहलाते हैं | क्योंकि ब्रह्मांड में उपस्थितसमस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है |इसीलिए शास्त्रों में शक्ति की विवेचना में कहा जाता है की जब शक्ति [काली] शिव से निकल जाती है तो शिव भी शव हो जाते हैं ,अर्थात शिव तभी ताल शिव हैं जब तक उनके साथ शक्ति हैं |वैसे ही पदार्थ में तभी तक जीवन है जबतक उसमे आत्मा है |
अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलनेकी जगह ... शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो. हमकह सकते हैं कि शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि हमारेब्रह्मांड की आकृति है.,उसकी ऊर्जा संरचना की प्रतिकृति है ,और अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म कीभाषा में बोला जाए तो शिवलिंग ,भगवान शिव और देवीशक्ति (पार्वती) का आदि-अनादि एकल रूप है तथापुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है. | अर्थातशिवलिंग हमें बताता है कि...... इस संसार में न केवलपुरुष का और न ही केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व हैबल्कि, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही समान हैं |एक दुसरे की परिकल्पना अथवा पूर्णता एक दुसरे के बिना संभव नहीं है |
हमें ज्ञात है की ब्रहमांड की प्रत्येक संरचना पदार्थ है जो परमाणुओं से मिलकर बनता है |परमाणु सर्वत्र विद्यमान हैं |जल-आकाश-वायु सर्वत्र |परमाणु की संरचना में नाभिक में प्रोटान और न्यूट्रान होते हैं और इस नाभिक के चारो और इलेक्ट्रान चक्कर लगता रहता है |न्यूट्रान तो उदासीन होता है किन्तु फिर भी नाभिक धनात्मक होता है क्योकि प्रोटान धनात्मक आवेश वाला कण होता है जो पूरे नाभिक को धनात्मक बनाए रखता है ,इस धनात्मक के आकर्षण में बंधकर ऋणात्मक आवेश का कण इलेक्ट्रान उसके चारो और चक्कर लगता रहता है और परमाणु का निर्माण होता है |इलेक्ट्रान का चक्कर लगभग गोलाकार होता है जिसकी तुलना हम शिवलिंग के योनी या अर्ध्य से कर सकते हैं |धनात्मक नाभिक की तुलना लिंग से कर सकते हैं जो स्थिर रहता है |इसमें स्थित न्यूट्रान परम तत्त्व का प्रतीक है जो उदासीन रहता है |इस विज्ञान को हमारा वैदिक ज्ञान जानता था और उसने शिवलिंग की परिकल्पना की |समस्त ब्रह्माण्ड परमाणुओं से बना है ,परमाणु हर कण कण में विद्यमान है |अर्थात ईश्वरीय ऊर्जा हर कण कण में है ,तभी तो हम कहते हैं कण कण में भगवान |इस परमाणु से ही शरीर की कोशिकाएं बनती हैं और शरीर बनता है ,,इससे ही वनस्पतियों की कोशिकाएं और शारीर बनता है |यहा तक की धातु-पत्थर-मिटटी भी इसी से बनते हैं |अर्थात शिवलिंग इस परमाणु का प्रतिनिधित्व करता है |धनात्मक-ऋणात्मक ऊर्जा के साथ निर्विकार शिव का प्रतिनिधित्व करता है |
अगर पुरुष-स्त्री के परिप्रेक्ष्य में देखें तभी यह शिवलिंग स्थूल रूप से लिंग -योनी का प्रतिनिधित्व करता दीखता है ,परन्तु यह वास्तव में ब्रह्मांडीय ऊर्जा धारा-संरचना का प्रतिनिधित्व करता है | लिंग -योनी में परिभाषित करने का शायद कारण इसके पुरुष और स्त्री अथवा पुरुष और प्रकृति का धनात्मक और ऋणात्मक ऊर्जा रूप है |इस ऊर्जा धरा या संरचना की अनेक परिभाषाएं और विवरण हैं ,पर यह मूल रूप से उर्जा को ,शक्ति को, उसकी क्रियाविधि को व्यक्त करता है |...............................................................
...जय श्री नारायण
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